Hockey World CUP 2023: कहते हैं कि ‘मंजिल उन्हीं को मिलती है, जिनके सपनों में जान होती है। पंख से कुछ नहीं होता हौसलों में उड़ान होती है।’ ये चंद पक्तियां 24 वर्षीय भारतीय हॉकी टीम (Indian Hockey Team) के डिफेंडर खिलाड़ी नीलम खेस (Nilam Sanjeep Xess) की जिंदगी पर बिलकुल सटीक बैठती हैं। नीलम 13 जनवरी से वर्ल्डकप (Hockey World Cup) में डेब्यू करने को तैयार हैं। ओडिशा (Odisha) के सुंदरगढ़ के एक छोटे से कस्बे कदोबहाल गांव के लोग मूलभूत सुविधाओं के आभाव में अपनी जिंदगी को जीने के लिए मजबूर हैं। पांच साल पहले तक इस गांव में बिजली नहीं थी। इस कड़ी में नीलम के परिवार की माली हालात इतनी खराब थी कि लालटेन तक खरीदने के पैसे नहीं थे। हॉकी डिफेंडर का परिवार दिए के सहारे रात काटते थे। क्रिकेट की खबरों के लिए Hindi.InsideSport.In को फॉलो करें।
7 जनवरी 1998 में किसान परिवार में जन्में नीलम को बचपन से ही हॉकी से प्यार था। मिट्टी और खपरैल से बने घर में रहने वाले नीलम बचपन में बकरी चराने जंगल में जाते थे। उस दौरान वो बिना घर वालों को बताए हॉकी स्टिक पर अपने हाथ आजमाने लगे। कदोबहाल गांव की आबादी बहुत ज्यादा नहीं है, लेकिन हॉकी को लेकर जुनून बहुत है। नीलम ने ऐसे मैदान में हॉकी खेलना शुरु किया जिसमें घास तक नहीं थी, दोनों गोलपोस्ट पर फटा हुआ नेट है।
डिफेंडर बनने के पीछे की कहानी
महज 7 साल की उम्र में नीलम हॉकी के मैदान पर उतरे। नीलम के अनुसार, वो स्कूल में ब्रेक के दौरान अपने भाई के साथ खेलते थे। घर आने के बाद परिवार वालों के साथ खेती में मदद करता है। फिर शाम के समय गांव के लोग हॉकी खेलने के लिए मिलते थे और हॉकी खेलते थे।
हालांकि, नीलम पहले महज टाइम पास के लिए खेलते थे और डिफेंडर इसलिए बने क्योंकि अन्य लोग फॉरवर्ड के तौर पर खेलना पसंद करते थे। ऐसा भी नहीं है कि नीलम पहले आदिवासी खिलाड़ी नहीं है बल्कि इससे पहले आदिवासी क्षेत्रों से कई खिलाड़ियों ने देश को मिले हैं। इनमें माइकल काइंडो, दिलीप टिर्की, लजारा बारला और प्रबोध टिर्की शामिल हैं। बता दें कि, नीलम को इनके बारे में जानकारी नहीं थी लेकिन तब उन्होंने ये भी नहीं सोचा था कि वो देश के लिए हॉकी खेलेंगे।
पढ़ाई पूरी करके नौकरी करना चाहते थे नीलम
कदोबहाल के बारे में नीलम कहते हैं कि, बिजली नहीं थी दुनिया में क्या हो रहा है मुझे तो ये भी नहीं पता था। कभी-कभी मुझे अपनी कहानी बताने में शर्म आती है, लेकिन फिर मैं सोचता हूं कि वाह मैं कहां पहुच गया। लेकिन नीलम अपनी पढ़ाई पूरी करके अच्छी नौकरी करना चाहते थे। साल 2010 के दौरान सबकुछ बदल गया, जब उनका चयन सुंदरगढ़ के स्पोर्ट्स हॉस्टल के लिए चयन हुआ। इसके बाद उन्हें इस बात की जानकारी मिली की हॉकी में भी पैसा कमाया जा सकता है। साथ ही इज्जत भी मिलती है। उसके बाद नीलम ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा और कड़ी मेहनत करके टीम में अपनी जगह बनाने में कामयाब रहे। नीलम के अनुसार, “मुझे पता चला कि हॉकी खेलकर भी पैसा कमाया जा सकता है। इज्जत मिलती है, इसलिए मैंने खिलाड़ी बनने के लिए कड़ी मेहनत की। फिर मैंने लदन ओलंपिक्स 2012 देखा। इसके बाद मैंने देश के लिए खेलने के लिए गोल सेट किया।”
वहीं नीलम की मदद ट्राइबेल बेल्ट के एक और खिलाड़ी बीरेंद्र लकड़ा ने उनकी काफी मदद की। खेस ने उन्हें लेकर कहा वो मुझे अपने भाई जैसा मानते थे और मुझे बहुत सी चीजें सिखाईं हैं।
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